Jaina Literature

Initiative by Vyom A. Shah

तपस्विनि क्षमाशीले नाऽतिकर्कशमाचरेत्।
अतिनिर्मथनादग्निश्चन्दनादपि जायते॥

{tapasvini kṣamāśīle nātikarkaśamācaret.
atinirmathanādagniścandanādapi jāyate..}

One should not behave harshly with a practitioner of penance or with one possessing a forgiving nature. Often, fire is born out of the rubbing of sandalwood.

तपस्वी एवं क्षमाशील व्यक्ति के प्रति विशेषतः कर्कश आचरण नहीं करना चाहिए। (जैसे) अत्यंत निर्मथन करने से चंदन के काष्ठ से भी अग्नि उत्पन्न होती है।

Source: Dharmopadeśamālāvivaraṇa by Jayasiṃhasūri


गिण्हइ दोसे वि गुणे वि जो रत्तो होइ जम्मि वत्थुंमि।
दुट्ठो गुणे वि दोसे वि मज्झत्थो दो वो णिरूवेज्ज॥

{गृह्णाति दोषानपि गुणानपि यो रक्तो भवति यस्मिन् वस्तुनि।
दृष्टो गुणेऽपि दोषेऽपि मध्यस्थो द्वावपि निरूपयति॥}

[giṇha:i dōsē vi guṇē vi jō rattō hōi jammi vatthuṁmi.
duṭṭhō guṇē vi dōsē vi majjhatthō dō vō ṇirūvējja..]

A person perceives virtues and faults in accordance with fondness for the object. Meanwhile, a neutral person, observing both virtues and faults, reflects on them impartially.

जिस वस्तु जो व्यक्ति आसक्त होता है, वह उसी रूप में दोष एवं गुणों का ग्रहण करता है। मध्यस्थ पुरुष गुण-दोष दोनों को देखकर दोनों का निरूपण करते है।

Source: Dharmopadeśamālāvivaraṇa by Jayasiṃhasūri


उदयत्थमणं जायइ निययं सव्वस्स नत्थि संदेहो।
सूरो वि पेच्छ कहमुदिऊण पत्तो पुणऽत्थमणं॥

{उदयत्थमणं जायइ निययं सव्वस्स नत्थि संदेहो।
सूरो वि पेच्छ कहमुदिऊण पत्तो पुणऽत्थमणं॥}

[udayatthamaṇaṁ jāya:i niyayaṁ savvassa natthi saṁdēhō.
sūrō vi pēccha kahamudiūṇa pattō puṇa’tthamaṇaṁ..]

The rising and setting of everyone are certain, without any doubt. See how the Sun, even after rising, undergoes the setting.

सर्व वस्तुओं का उदय एवं अस्तमन नियत है, इस बात में कोई सन्देह नहीं है। देखो, सूर्य भी कैसे उदित होकर अस्त होता है।

Source: Dharmopadeśamālāvivaraṇa by Jayasiṃhasūri


हेयं विहाय विरलाः सदसद्विवेकादादेयमत्र समुपाददते पुमांसः।
सम्प्रत्यहो जगति हन्त! पिबन्ति नीरात् क्षीरं विविच्य सहसा विहगाः कियन्तः॥

{heyaṃ vihāya viralāḥ sadasadvivekādādeyamatra samupādadate pumāṃsaḥ.
sampratyaho jagati hanta! pibanti nīrāt kṣīraṃ vivicya sahasā vihagāḥ kiyantaḥ..}

Only a few men forsake things worth abandoning and pursue that which is worthy of acquisition. Alas! In the world, how many birds can instantly drink milk from (a mixture of milk and) water by discerning between them?

हेय वस्तु को छोडकर एवं आदेय वस्तु का सत्-असत् वस्तु के विवेक के द्वारा ग्रहण कितने लोग करते है? हन्त! अब जगत् में कितने ही पक्षी क्षीर एवं जल के मिश्रण से विवेक के द्वारा क्षीर का पान कर सकते है?

Secondary source: Saṅghapaṭṭaka with Bṛhaṭṭīkā by Jinapatisūri


परिभुंजिउं न याणेइ लच्छिं पत्तं पि पुण्णपरिहीणो।
विक्कमरसा हु पुरिसा भुंजंति परेसु लच्छीओ॥

{परिभोक्तुं न जानाति लक्ष्मीं प्राप्तामपि पुण्यपरिहीनः।
विक्रमरसाः खलु पुरुषा भुञ्जते परेषां लक्ष्म्यः॥}

[paribhuṁjiuṁ na yāṇēi lacchiṁ pattaṁ pi puṇṇaparihīṇō.
vikkamarasā hu purisā bhuṁjaṁti parēsu lacchīō..]

Those devoid of puṇya is not aware of the ways to enjoy wealth. (However,) Those men who possessed with courage (have tendency to) enjoy wealth of others.

पुण्य से हीन पुरुष प्राप्त की हुई लक्ष्मी का भी परिभोग करना नहीं जानता। इससे विपरीत विक्रम के रसिक लोग दूसरों को प्राप्त भी लक्ष्मी का भोह करते है।

Source: Kathākoṣaprakaraṇa by Jineśvarasūri


व्योम्नो यथेन्दुः सदनस्य दीपो हारस्य सारस्तरलो यथा वा।
वनस्य भूषा च यथा मधुश्रीर्ज्ञानस्य वैराग्यमतिस्तथैव॥

{vyomno yathenduḥ sadanasya dīpo hārasya sārastaralo yathā vā.
vanasya bhūṣā ca yathā madhuśrīrjñānasya vairagyamatistathaiva..}

Just as the epitome of the sky is the moon, of the home is the lamp, of the necklace is the gem, and as the beauty of the forest is the beauty of Vasanta, the intellect devoid of worldly desires is the essence of knowledge.

मूर्ख पुरुष को अकृत्य से रोकते हुए जो पुरुष परिखिन्न हो जाता है, उसका (मूर्ख के प्रति) वाणी का विस्तार निष्प्रयोजन, जैसे भस्म में घृत की पात निष्प्रयोजन है।

Source: Upamitibhavaprapañcā Kathā by Siddharṣigaṇī


अकार्यवारणोद्युक्तो मूढे यः परिखिद्यते।
वाग्विस्तरो वृथा तस्य भस्मन्याज्यहुतिर्यथा॥

{akāryavāraṇodyukto mūḍhe yaḥ parikhidyate.
vāgvistaro vṛthā tasya bhasmanyājyahutiryathā..}

The one distressed by restraining a fool from engaging in unfit work finds his multitude of speech worthless, just like ghee poured into ashes.

जैसे आकाश का सार चन्द्र है, गृह का सार दीपक है, हार का सार मणि है एवं वन की भूषा उसकी वसंतकालसंबंधी ऋद्धि है, वैसे ही ज्ञान का सार/भूषण वैराग्यवासित बुद्धि है।

Source: Vairāgyakalpalatā by Upādhyāya Yaśovijaya


हिययनिवेसियवडवानलो वि विसकुलहरं पि जलरासी।
रयणायरु त्ति लंभइ पेच्छ पसिद्धीए माहप्पं॥

{हृदयनिवेशितवडवानलोऽपि विषकुलधरमपि जलराशिः।
रत्नकार इति लभते प्रेक्षस्व प्रसिद्ध्या माहात्म्यम्॥}

[hiyayanivēsiyavaḍavānalō vi visakulaharaṁ pi jalarāsī.
rayaṇāyaru tti laṁbha:i pēccha pasiddhīē māhappaṁ..]

Though contained within the heart is a submarine fire, and bearing the multitude of poison, the water body (ocean) acquires the name Ratnākara (collection of gems). Witness the magnanimity achieved through fame.

अंतर में वडवानल एवं विष के संपूर्ण कुल को ग्रहण करते हुए भी समुद्र "रत्नाकर" अभिधान को प्राप्त करता है। प्रसिद्धि से प्राप्त माहात्म्य देखो!

Source: Gāhārayaṇakoso by Jineśvarasūri


पुरिसाण कुलीणाण वि न कुलं विणयस्स कारणं होइ।
चंदाऽमयलच्छिसहोयरं पि मारेइ किं न विसं?॥

{पुरुषाणां कुलीनानामपि न कुलं विनयस्य कारणं भवति।
चन्द्राऽमृतलक्ष्मीसहोदरमपि मारयति किं न विषम्?॥}

[purisāṇa kulīṇāṇa vi na kulaṁ viṇayassa kāraṇaṁ hōi.
caṁdā’mayalacchisahōyaraṁ pi mārēi kiṁ na visaṁ?..]

Even for those born in virtuous families, the lineage is not the cause of their humility. Doesn't the real brother of the moon, ambrosia, and Lakṣmī — poison — doesn't kill people?

कुलीन पुरुषों का कुल उनके विनय का कारण नहीं बनता। चंद्र, अमृत, एवं लक्ष्मी का सहोदर विष क्या (प्राणी को) नहीं मारता?

Source: Gāhārayaṇakoso by Jineśvarasūri


जह उग्गओ रवी णहयलम्मि ण खणं पि णिच्चलो होइ।
तह तारुण्णं जीवाण होइ न थिरं मुहुत्तं पि॥

[यथा उदितो रवी नभस्तले न क्षणमपि निश्चलो भवति।
तथा तारुण्यं जीवानां भवति न स्थिरं मुहूर्तमपि॥]

Just as the sun rise in the sky and doesn't stay steady for even a moment, (similarly,) youthfulness of the beings never stays steady for even a moment.

जैसे उदित सूर्य एक क्षण भी आकाश में निश्चल नहीं रहता, उसी प्रकार जीवों का तारुण्य एक मुहूर्त भी स्थिर नहीं रहता।

Source: Ca:uppanamahāpurisacariaṁ by Ācārya Śīlāṅka


मानिनां स्वामिना दत्तं मुदेऽल्पमपि कल्पते।
वरं पौरन्दरं वारि बप्पीहः पातुमीहते॥

{mānināṃ svāminā dattaṃ mude'lpamapi kalpate.
varaṃ paurandaraṃ vāri bappīhaḥ pātumīhate}

For those possessed of self-respect, even a little given by the master brings delight, just as the water attained from Indra is desired by Cātaka for drinking.

स्वाभिमानी मनुष्यों के लिए स्वामि से प्राप्त स्वल्प (वस्तु) भी आनन्द का कारण बनती है। (जैसे) चातक पक्षी इन्द्र से प्राप्त ऐसे उत्तम जल पीने की आकांक्ष रखता है।

Source: Dṛṣṭāntaśatam by Narendraprabhasūri


प्रियानुरोधाद् बध्नाति विप्रियेऽपि जनो मनः।
पङ्कभाजोऽपि हर्षाय वर्षाः सस्याभिलाषिणाम्॥५।११॥

{priyānurodhād badhnāti vipriye'pi jano manaḥ.
paṅkabhājo'pi harṣāya varṣāḥ sasyābhilāṣiṇām..5.11..}

Often, a person directs their mind towards disliked things to fulfill the wishes of their loved ones. Just as the rains, for the delight of those desiring crops, fall upon the share of mud.

(कई बार) प्रिय व्यक्ति के अनुरोध से लोग विप्रिय विषयों में भी अपना मन बांध लेते है। (जैसे) सस्य की इच्छा रखनेवालों के हर्ष के लिए वर्षा (विप्रिय भी) कर्दम का आश्रय लेती है।

Source: Mallikāmakarandanāṭakam by Rāmacandrasūri


नत्थि भयं जग्गमाणस्स।

[नास्ति भयं जाग्रतः।]

There is no fear for the one who is awake.

जागरूक मनुष्य को किसी से भय नहीं होता।

Source: Ākhyānamaṇikośa by Nemicandrasūri


पुरुषः सम्पदामग्रमारोहति यथा यथा।
गुरूनपि लघुत्वेन स पश्यति तथा तथा॥

{arthpuruṣaḥ sampadāmagramārohati yathā yathā. gurūnapi laghutvena sa paśyati tathā tathā..}

As a person begins to attain prosperity, they start perceiving even great individuals as insignificant.

जैसे जैसे पुरुष संपत्तिओं को प्राप्त करने लगता है, वैसे वैसे वह महान् लोगों को भी लघुरूप में देखने लगता है।

Source: Prabandhakośa by Rājaśekharasūri


अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च। वञ्चनं चाऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत्॥

{arthanāśaṁ manastāpaṃ gṛhe duścaritāni ca. vañcanaṃ cā'pmānaṃ ca matimānna prakāśayet..}

An intelligent person shall never disclose the destruction of wealth, mental distress, misbehavior at home, being cheated, and dishonor.

मतिमान् पुरुष को कदापि इन बातों को प्रकट नहीं करना चाहिए - धन का नाश, मानसिक खेद, गृह में हुआ अनाचरण, उसके साथ हुई वञ्चना एवं अपमान।

Source: Ākhyānamaṇikośa by Nemicandrasūri


धीरा हि न विषीदन्ति सादहेतौ महत्यपि।

{dhīrā hi na viṣīdanti sādahetau mahatyapi.}

The composed men do not get sad even if the reason for sinking down is too great.

महान् भी विषाद का हेतु होने पर धीर लोग विषाद नहीं करते।

Source: Sanatkumāracakricaritam Mahākāvyam by Jinapālagaṇin


सत्त्वं चेदेकमप्यस्ति किमन्यैर्बहुभिर्गुणैः।
तदेव हन्त! चेन्नास्ति किमन्यैर्बहुभिर्गुणैः॥

{sattvaṃ cedekamapyasti kimanyairbahubhirguṇaiḥ.
tadeva hanta! cennāsti kimanyairbahubhirguṇaiḥ..}

If there exists only one virtue—strength—what then is the necessity of any other virtues? If one is devoid of strength, what shall all other virtues secure?

यदि केवल एक ही सत्त्व गुण हो, तो अन्य गुणों का क्या प्रयोजन? यदि वही (सत्त्व) ही नहीं है जो अन्य गुणों से क्या प्रयोजन?

Source: Pāṇḍavacaritam Mahākāvyam by Devaprabhasūri


निम्मलनहे वि अणहे जिणाण चलणुप्पले पणमिऊणं। वीरमविरुद्धवयणं थुणामि सविरुद्धवयणमहं॥१॥

[निर्मलनखान्यपि अनखानि(अनघानि) जिनानां चरणोत्पलानि प्रणम्य।
वीरमविरुद्धवचनं स्तौमि सविरुद्धवचनमहम्(सविरुद्धवचनमथम्)॥]

निर्मलेति। नर्मलनखान्यपि अनखानि। अविरुद्धवचनमपि सविरुद्धवचनम्। जिनानां चरणोत्पलानि प्रणम्य वीरं स्तौमीति सम्बन्धो विरोधपक्षे। परिहारपक्षे तु विरोधोत्थापकान्येव पदान्यन्यथा व्याख्येयानि। शेषाणि {तु} पूर्ववदिति सर्वत्र द्रष्टव्यम्। तत्र न विद्ये अघं-व्यसनं वा पापं येषां तान्यघानि। तथा सह विरुद्धेन विरुद्धालङ्कारसारवचनेन वर्तते तद् यथा {भवति तथा} स्तौमीति क्रियाविशेषणम्। अनेन विरोधालङ्कारालङ्कृतेयं स्तुतिरिति कथयति। तथा हि -

विरुद्धानां पदार्थानां यत्र संसर्गदर्शनम्। विशेषदर्शनायैव स विरोधः स्मृतो यथा॥१॥

इति विरोधरलक्षणम्। तच्चास्यां {स्तुतौ} समस्तीति॥१॥